रहस्यवादियोंका सिद्धान्त

 

 वेदमें उपनिषदोंका उच्च आध्यात्मिक सारतत्त्व विद्यमान है, परन्तु उसमें उनकी शब्दावलि नहीं पाई जाती । यह एक अन्त:स्फूर्त ज्ञान है जो अभी बौद्धिक और दार्शनिक परिभाषाओंसे पर्याप्तरूपसे विभूषित नहीं । वेदमें हम उन कवियों और ऋषियोंकी भाषा पाते हैं जिनके लिए समस्त अनुभव वास्तविक, सुस्पष्ट एवं बोधगम्य हैं, यहाँ तक कि मूर्तिमन्त हैं, पर वहाँ हम अभी उन विचारकों और संहिताकारों (व्यवस्थित संकलन करनेवालों) की भाषा नहीं पाते जिनके लिए मन और आत्माको गोचर होनेवाली वास्तविक सत्ताएँ अमूर्त वस्तुएँ बन गई हैं । तो भीं उसमें एक पद्धति एवं सिद्धान्त अवश्य है । परन्तु उसकी बनावट लचकीली है, उसकी परिभाषाएँ मूर्त हैं, उसके विचारका ढांचा एक पुरानी सुनिश्चित अनुभूतिके संसिद्ध नमूनेके रूपमें व्यावहारिक और प्रयोगसिद्ध है,--किसी ऐसी अनुभूतिके नमूनेके रूपमें नहीं जो अभी तक बननेकी प्रक्रियामें होनेके कारण अपरिपक्व और अनिश्चयात्मक हो । यहाँ हमे एक ऐसा प्राचीन मनोविज्ञान और आध्यात्मिक जीवनकी ऐसी कला मिलती हैं जिनका दार्शनिक परिणाम एवं दार्शनिक संशोधित रूप हैं उपनिषदें और जिनका अर्वाचीन बौद्धिक परिणाम एवं तार्किक सिद्धान्त ही है वेदान्त, सांख्य और योग । परंतु समस्त जीवन की तरह, ऐसे समस्त विज्ञानकी तरह जो अबतक प्राणवंत है, यह (वेद) तर्कशील बुद्धिकी कवचबद्ध कठोरताओंसे मुक्त है । अपने स्थापित प्रतीकों और पवित्र सूत्रोंके रहते भी यह विशाल, मुक्त, लचकीला, तरल, नमनशील और सूक्ष्म है । यह जीवनकी गति और आत्माके विशाल नि:श्वाससे युक्त है । और जब कि परवर्ती दर्शनशास्त्र ज्ञानकी पुस्तकें हैं और मुक्तिको एकमात्र परम नि:श्रेयस मानते हैं, वेद कर्मोंकी पुस्तक है और जिस चीजकी आशासे वह हमारे वर्तमान बंधनों और क्षुद्रताको ठुकरा फेंकता है, वह है पूर्णता, आत्म-उपलब्धि और अमरता ।

 

रहस्यवादियोंका सिद्धान्त एक ऐसी अज्ञेय, कालातीत और अनाम सत्ताको स्वीकार करता है जो सब वस्तुओंके पीछे और ऊपर विद्यमान है और मनके अध्यवसायपूर्ण अनुशीलन द्वारा ग्राह्य नहीं । निर्गुण (निर्वैयक्तिक) रूपमें वह तत् है, एकमेव सत्ता (एक सत्) हे । हमारी व्यक्तित्वमय सत्ता द्वारा


की गई खोजके प्रति वह अपने आप को वस्तुओंकी गुहामेंसे भगवान् या देवके रूपमे प्रकट करता है,--वह नामरहित है यद्यपि उसके अनेकों नाम हैं, अपरिमेय और अवर्णनीय है यद्यपि वह नाम और ज्ञान-संबंधी सभी वर्णनोंको और आकार एवं उपादान, शक्ति एवं क्रियाके सब प्रकारके परिमाणोंको अपने अंदर धारण किये है ।

 

वेद या देवाधिदेव आदि कारण और अंतिम परिणाम दोनों है । वह सत्स्वरूप भगवान् है, लोकोंका निर्माता और सब वस्तुओंका स्वामी और उत्पादक, पुरुष और स्त्री (नृ और ग्ना) है, सत् और चित् है, लोकों और उनके निवासियोंका पिता और माता है तथा उनका और हमारा पुत्र भी: क्योकि वह लोकोंके अन्दर उत्पन्न हुआ दिव्य शिशु है जो प्राणीके विकासमें अपने-आपको अभिव्यक्त करता है । वह है रुद्र और विष्णु, प्रजापति और हिरण्यगर्भ, सूर्य, अग्नि, इन्द्र, वायु, सोम और बृहस्पति,--वरुण, मित्र, भग व अर्यमा, समी देवता (विश्वेदेवा:) । वह है ज्ञानमय और शक्तिशाली, मुक्तिदाता पुत्र जो हमारे कार्यकलाप और हमारे यज्ञसे उत्पन्न होता है, वह है हमारे युद्धोंमें वीर, ज्ञानका द्रष्टा, हमारे दिनोंके सम्मुख अवस्थित श्वेत अश्व जो उच्चतर समुद्रकी ओर सरपट दौड़ रहा है ।

 

मनुष्यका आत्मा पक्षी (हंस )के रूपमें भौतिक और मानसिक चेतनाके प्रकाशमान आकाशोंसे गुजरता हुआ उड़ता है और वह एक यात्री और योद्धाके रूपमे सत्यके आरोही पथके द्वारा शरीरके पृथ्वीलोक और मनके द्युलोक सें परे चढ़ जाता है । वहाँ वह देखता है कि यह परमेश्वर हमारी प्रतीक्षा कर रहा है और अपनी चरम-परम सत्ताके उस गुह्य धामसे हमारी तरफ़ झुक रहा है जहाँ वह त्रिविध दिव्य तत्त्व (सत्, चित्, आनंद) में और परम आनंदके उद्गममें आसीन है । वह देव चाहे वहाँ उच्चासीन होकर हमें आकर्षित कर रहा हों, चाहे बृहत्तर देवोंके आकारमें यहाँ हमारी सहायता कर रहा हों, वह निश्चय ही सदा मनुष्यका सखा और प्रेमी है, गोयूथोंके चरागाहका स्वामी है जो हमें अनंतताकी प्रकाशमय गौके स्तनोंसे मधुर दुग्ध और शोधित नवनीत प्रदान करता है । वह दिव्य आनन्दको अमृतमय सुराका मूलस्रोत और वर्षक है और हम सत्ताकी सप्तविध धाराओंसे निकाली हुई या सत्ताकी पहाड़ी पर देदीप्यमान पौधेसे निचोड़ी हुई उस सुराका पान करते हैं और उसके हर्षोल्लासोंके द्वारा उन्नीत होकर अमर बन जाते हैं ।

 

इस प्रकारके हैं इस प्राचीन रहस्यवादी पूजाके कुछ एक रूपक ।

 

भगवान्ने इस विश्वको लोकोंकी एक जटिल श्रुंखलाके रूपमें बनाया है । इन लोकोंको हम अपने अंदर और बाहर दोनों जगह पाते है, अंदर

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तो विषयिरूपसे संज्ञात और बाहर विषय-रूपसे इंद्रियों द्वारा गृहीत या संवेदित । यह है पृथिवियों और द्युलोकोंकी चढ़ती हुई शृंखला । यह नानाविध जलोंकी एक धारा है । यह सात किरणों या फिर आठ, नौ, दस किरणोंवाली ज्योति है । यह है अनेक उच्च धरातलोंवाली एक पहाड़ी । ऋषि प्रायः इसे त्रिकोंकी एक शृंखलाके रूपमें चित्रित करते हैं; तीन पृथिवियाँ हैं और तीन द्यौ । और फिर नीचे एक त्रिविध लोक भी है,--द्यौ, पृथिवी और मध्यवर्ती अंतरिक्ष-लोक । बीचमें है त्रिविध जगत्, सूर्यके तीन भास्वर द्युलोक (त्रीणि रोचना); एक त्रिविध लोक ऊपर भी है, ये हैं देवाधिदेवके परमोच्च और आनदोल्लासमय धाम ।

 

परन्तु अन्य तत्त्व भी बीचमें आते हैं और लोकों के इस क्रमको और भी जटिल बना देते है । ये तत्त्व अंतश्चेतनासे संबंध रखते है । क्योकि वास्तवमें सारी सृष्टि परम आत्माकी एक रचना है, अतः जगतोंकी प्रत्येक बाह्य प्रणालीको अपने प्रत्येक स्तरपर भौतिक रूपमें उस चेतनाकी किसी शक्ति या बढ़ती हुई मात्राके अनुरूप बनना होगा जिसका वह बाह्य प्रतीक है और उसे वस्तुओंकी इससे मिलती-जुलती आंतरिक क्रम-व्यवस्थाको भी स्थान देना होगा । वेदको समझनेके लिए हमें इस वेदोक्त समानांतर क्रम-श्रुंखलाको हृदयंगम करना होगा और विश्वके उन क्रमिक स्तरोंको पृथक्-पृथक् जानना होगा जिनकी ओर यह शृंखला ले जाती है । परवर्ती पौराणिक प्रतीकोंके पीछे हम इसी प्रणालीको फिरसे पाते हैं और वहीं से हम इसकी सारणीको अत्यन्त सरल और स्पष्ट रूपमें प्राप्त कर सकते हैं । क्योंकि सत्ताके सात तत्त्व हैं और पुराणोंके सात लोक काफ़ी ठीक-ठीक इन्हींके अनुरूप हैं, इस प्रकार:

 

तत्व

 

1.शुद्ध सत्ता--सत्

 

2.शुद्ध चेतना--चित्

 

3.सुद्ध आनन्द--आनन्द

 

4.ज्ञान,या सत्य-विज्ञान

5.मन

6.प्राण (नाड़ीगत सत्ता)

7.अन्न (स्थूल सत्ता)

 

लोक

 

1.सत्ताके सर्वोच्च सत्यका लोक

                 ( सत्यलोक)

2.अनन्त संकल्पशक्ति ( तपस्) या

 या सचेतन शक्तिका लोक ( तपोलोक)

3.सत्ताके सर्जनकारी आनन्दका लोक

                     ( जनलोक)

4.बृहत्ताका लोक ( महर्लोक)

5.प्रकाशका लोक ( स्व:)

6.नानाविध संभूतिके लोक ( भुवः) लोक

7.अन्नमय   लोक ( भू:)

 

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अब यह लोक-संस्थान जो पुराणमें पर्याप्त सीधा-सरल है, वेदमें बहुत ही अधिक जटिल है । वहाँ तीन सर्वोच्च लोकोंको त्रिविध दिव्य तत्त्वके रूपमें एक ही वर्गमें एकत्रित कर दिया गया है,-क्योंकि वे त्रैतमें सदा एक साथ रहते हैं; अनन्तता है उनका क्षेत्र, आनन्द है उनका आधार । वे सत्यके उन विशाल क्षेत्रोंके आश्रयपर स्थित हैं जहाँसे एक दिव्य ज्योति स्वर् अर्थात् इन्द्रके प्रदेशके तीन ज्योतिर्मय द्युलोकोंमें हमारी मनोमय सत्ताकी ओर रश्मियोंके रूपमें प्रसारित होती है । नीचे वर्गीकृत है त्रिविध संस्थान जिसमें हम निवास करते हैं ।

 

वेदमें हम वैसे ही वैश्व स्तर पाते हैं जैसे पुराणोंमें । परन्तु उनका वर्गीकरण भिन्न प्रकारसे किया गया है,-तत्वोंकी दृष्टिसे लोक सात हैं, व्यवहारकी दृष्टिसे पाँच, अपने सामान्य बर्गीकरणोंकी दृष्टिसे तीन :

 

1. परम सत्-चित्-आनन्द           1. त्रिविध दिव्य लोक

2. संयोजक लोक, विज्ञान ( अतिमानस) 2. सत्य, ऋत, बृहत्1 जो अपने तीन

                                 प्रकाशमय द्युलोकों सहित स्व: मे

                                 अभिव्यक्त है ।

3. नीचेका त्रिविध लोक              3. द्युलोक

शुद्ध मन                           (द्यौ:,तीन द्युलोक)

प्राणशक्ति                           मध्यवर्ती क्षेत्र (अन्तरिक्ष)

अन्न                              पृथिवी (तीन पृथिवियाँ)

 

और जैसे प्रत्येक तत्त्व अपने अन्दर स्थित अन्योंकी अवान्तर अभिव्यक्तिके द्वारा परिवर्तित हो सकता हैं, वैसे ही प्रत्येक लोक अपनी सर्जनकारी चिन्मय ज्योतिके विभिन्न विन्यासों और आत्म-व्यवस्थाओंके अनुसार अनेकविध प्रदेशोंमें विभाजित किया जा सकता है । तो फिर ऋषियोंकी सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि और उर्वर रूपकमालाकी सभी जटिलताओंको इसी ढाँचेमें स्थान देना होगा, यहाँतक कि नीचेके जो सौ नगर आज शत्रुराजाओ अर्थात् द्वैध और बुराईके अधिपतियोंके आधिपत्यमें हैं उनको भी । परन्तु देव उन सब नगरोंके द्वार तोड़कर खोल देंगे और उन्हें आर्य उपासकको उसके निर्बाध आधिपत्यके लिये दे देंगे ।

 

परन्तु ये लोक हैं कहाँ और कहाँसे सृष्ट हुए है? यहाँ हम वैदिक ऋषियोंका एक अन्यतम गंभीर विचार पाते हैं । मनुष्य पृथिवी-माताके वक्षःस्थलमें निवास करता है और केवल इस मर्त्यलोकसे ही अभिज्ञ है ।

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1. सत्यं बृहद् ऋतम् । अथर्व. 12. 1. 1.

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परन्तु इससे बहुत ऊँचाईपर एक अतिचेतन लोक है जहाँ दिव्य लोक प्रकाशमय गुहामें अवस्थित है; मनुष्यकी जाग्रत् चेतनाके उपरितलीय संस्कारोंके नीचे एक अवचेतन या निश्चेतन लोक है और सब वस्तुओंको गर्भरूपमें धारण करनेवाली उस रात्रिसे लोक,-जैसा कि वह उन्हें देखता है,-उत्पन्न हुए हैं । किन्तु ऊपरके उस ज्योतिर्मय समुद्र तथा नीचेके इस अंधकारमय समुद्रके बीचमें स्थित इन अन्यलोकोंके विषयमें तथ्य क्या है ? ये यहाँ अस्तित्व रखते है । मनुष्य प्राण-जगत्से अपनी प्राणमय सत्ताको और मनोमय-जगत्से अपनी मन:सत्ताको ग्रहण करता है । वह सदा ही इनके साथ गुप्त आदान-प्रदान करता रहता है । यदि वह चाहे तो सचेतन रूपसे इनमें प्रवेश कर सकता है, इनके अन्दर उत्पन्न हो सकता है । यहाँतक कि वह सत्यके सौर लोकोंमें भी उठ सकता है, अतिचेतनके मुख्य द्वारोंमें प्रवेश कर सकता है, परमदेवकी देहरीको लाँघ सकता है । उसकी वर्धित होती हुई आत्माके लिए दिव्य द्वारोंके पट खुल जायँगे ।

 

मानवका यह आरोहण संभव है क्योंकि प्रत्येक मानव प्राणी वस्तुत: अपने अन्दर उस सबको धारण किये है जिसे उसकी बहिर्मुखी दृष्टि मानो अपनेसे बाहर स्थित वस्तुके रूपमें देखती है । हमारे अन्दर कुछ आत्मगत शक्तियाँ गुप्त रूपमें विद्यमान है जो बहिर्गत विश्व-संस्थानके इन सभी स्तरों व शृंखलाओंके अनुरूप हैं और इन्हींसे हमारे लिये हमारी संभवनीय सत्ताकी इतनी अधिक भूमिकायें बन गई हैं । यह जड़प्राकृतिक जीवन और भौतिक लोककी यह हमारी सकीर्णतया सीमित चेतना ही मनुष्यको प्राप्त हो सकनेवाली एकमात्र अनुभूति नहीं हैं, बल्कि ये ऐसी अनुभूति होनेसे कोसों दूर हैं, चाहे मनुष्य सहस्रों गुणा पृथिवीका पुत्र क्यों न हो । यदि पृथिवी माताने उसे कभी गर्भ-रूपमें धारण किया था और अब उसे अपनी भुजाओंमें थामे है, तो द्युलोक भी उसके जनकोंमेंसे एक है और उसकी सत्तापर उसका भी दावा है । यह मार्ग मनुष्यके सामने खुला है कि वह अपने अन्दर गहनतर गहराइयों और उच्चतर ऊँचाइयोंके प्रति जाग्रत् हों जाय और ऐसा जागरण ही उसकी अभिप्रेत प्रगति है । और जैसे-जैसे वह इस प्रकार अपने सदा ऊँचे-से-ऊँचे स्तरोंपर आरोहण करता है, वैसे-वैसे नये लोक उसके जीवन और उसकी दृष्टिके सामने खुलते चले जाते हैं और उसके अनुभवका क्षेत्र और उसकी आत्माके घर बन जाते है । वह उन लोकोंकी शक्तियों और देवताओंके सम्पर्क और सायुज्यमें रहता है तथा अपने आपको फिरसे उनकी प्रतिमूर्त्तिमें ढाल लेता है । इस

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प्रकार प्रत्येक आरोहण आत्माका एक नया जन्म है, वेद लोकोंको ''जन्म'' कहता है और धाम (पद) एवं निवास-स्थान भी ।

 

क्योंकि जैसे देवोंने वैश्व लोकोंकी श्रुंखला बनायी हैं वैसे ही वे मनुष्यकी चेतनामे मर्त्य अवस्थासे सर्वोच्च अमरताकी अवस्थातक क्रमबद्ध भूमिकाओं और आरोही कोटि-क्रमोंकी वैसी शृंखला बनानेका प्रयास भी करते हैं । वे उसे सत्ताकी इस सीमित भौतिक अवस्थासे ऊपर उठाते हैं जिसमे हमारी निम्नतम मानवता सन्तुष्ट होकर और द्वैधके अधिपतियोंके अधीन होकर निवास करती है, वे उसे प्राण और कामनाके उन गतिशक्तिमय लोकोंसे मिलनेवाले अनेक वेगवान् आघातों व प्रेरणाओंसे समृद्ध एवं प्रपूरित जीवन प्रदान करते है जहाँ देव असुरोंसे युद्ध करते है, और साथ ही वे उसे उन विक्षुब्ध शीघ्रताओं और तीव्रताओसे और भी ऊँचा उठाकर उच्च मानसिक सत्ताकी सुस्थिर पवित्रता और निर्मलतामें ले जाते है । क्योंकि शुद्ध विचार और वेदन है मनुष्यके आकाश और उसके द्युलोक । आवेशों, आवेगों और भाव-भावनाओंकी यह सम्पूर्ण प्राणात्मवादी (प्राणप्रधान) सत्ता,--जिसकी धुरी है कामना,--उसके लिये अन्तरिक्षका निर्माण करती है । शरीर और भौतिक जीवन उसकी पृथिवी हैं ।

 

परन्तु शुद्ध विचार और शुद्ध चैत्य अवस्था ही मानवीय आरोहणका उच्चतम शिखर नहीं । देवोंका धाम है निरपेक्ष सत्य, जौ मनसे परे सौर वैभवोंमे निवास करता है । उस ओर आरोहण करता हुआ मनुष्य तब और एक विचारकके रूपमे संघर्ष नहीं करता वरन् विजयी द्रष्टा हों जाता है  । तब वह आज-जैसा मनोमय प्राणी नहीं रहता, किन्तु एक दिव्य पुरुष बन जाता है । उसका संकल्प, जीवन, विचार, भावावेश, संवेदन, कार्य--सभी सर्व-शक्तिमान् सत्यके मूल्योंमें रूपान्तरित हो जाते है और वे अब मिश्रित सत्य और मिथ्याकी उलझी या निरुपाय गॉठ नहीं रहते । वह अब और पंगुवत् हमारी संकीर्ण और द्विविधापूर्ण सीमाओंमें लंगड़ाता हुआ नहीं चलता, परन्तु निर्बाध बृहत्में विचरण करता है, अब इन कुटिलताओंके बीच कशमकश करता हुआ टेढा-मेढ़ा नही चलता, बल्कि वेगवान् और विजयशील सीधे मार्गका अनुसरण करता है, वह अब टूटे-फूटे टुकडोंपर नहीं पलता, किन्तु अनन्तताके स्तनोंका दुग्धपान करता हैं । इसलिए उसे पृथिवी और द्यौके इन लोकोंको भेदते हुए इनसे बाहर निकलकर परे जाना होगा । सौर लोकोंकी दृढ़ उपलब्धिको अधिकृत करते हुए तथा अपने उच्चतम शिखरपर प्रवेश करते हुए उसे अमरताके त्रिविध तत्त्वोंमें निवास करना सीखना होगा ।

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मर्त्यसत्ता जो कि हम हैं और अमरताकी स्थिति जिसकी हम अभीप्सा कर सकते हैं--उनमें यह अन्तर वैदिक विचार और आचारकी कुंजी है । वेद मनुष्यकी अमरताका सबसे प्राचीन धर्मग्रन्थ है जो हमें उपलब्ध मैक है ये प्राचीन छन्द अपने अन्दर अमरताके अन्त:प्रेरित अन्वेषकोंके आदि- कालीन अनुशासनको छिपाये हैं ।

 

सत्ताका सारतत्त्व, चेतनाका प्रकाश, सक्रिय शक्ति तथा प्रभुत्वपूर्ण आनन्द--ये है 'सत्'के घटक तत्त्व । परन्तु हमारे अंदर उनका मेल या तो सीमित, विभक्त, आहत, भग्न और अस्पष्ट हो सकता है या अनन्त, आलोकित, विशाल, अखंड और अक्षत । सीमित और विभक्त सत्ता है अज्ञान । वह है अंधकार और दुर्बलता । वह है दुःख और पीड़ा । बृहत्में, समग्र और अनन्तमे हमें सत्ताके सारतत्त्व, ज्योति, शक्ति और आनन्दके वरणीय ऐश्वर्यकी खोज करनी होगी । सीमितता है मर्त्यता । अमरता हमें अनन्तमें संसिद्ध आत्म-प्रभुत्वके रूपमें और दृढ़ विशालताओंमें रहने-सहने और चलने-फिरनेकी शक्तिके रूपमें प्राप्त होती है । इसलिए मनुष्य उसी अनुपातमें अमरताके योग्य बनता है जिस अनुपातमें वह विशाल बनता है और साथ ही वह इस शर्तपर इसके योग्य बनता है कि वह अपनी सत्ताके सारतत्त्वमें निरन्तर बढ़ता जाय, संकल्पकी सदा ऊँची-से-ऊँची ज्वालाको और ज्ञानकी विशाल-से-विशाल ज्योतिको प्रदीप्त करे, अपनी चेतनाकी सीमाओंको और आगे बढ़ाये, अपनी शक्ति, सामर्थ्य और बलके स्तरोंको ऊँचा उठाये और उनके विस्तारको और अधिक विशाल बनाये, अधिकाधिक प्रगाढ़ आनन्दको संपुष्ट करे और अपनी आत्माको अपरिमेय शांतिके अंदर मुक्त कर दे ।

 

विशाल होनेका अर्थ है नये जन्म पाना । अभीप्सा करता हुआ देह-प्रधान जीव आयासशील प्राण-प्रधान मनुष्य बन जाता है; और इस क्रमसे वह अपने-आपको सूक्ष्म मनोमय और चैत्य सत्तामे रूपान्तरित कर लेता है; यह सूक्ष्म विचारक विकसित होता हुआ एक विशाल, बहुपक्षीय और वैश्व मानव बन जाता है जो अपने सब पार्श्वोमें सत्यके सभी अनेकानेक अन्त:-प्रवाहोंकी ओर खुला होता है; वैश्व आत्मा अपनी उपलब्धिमें ऊँचा उठता हुआ एक आध्यात्मिक मनुष्यके रूपमें उच्चतर शांति, आनन्द ओर सामञ्जस्यके लिए प्रयत्न करता है । ये हैं आर्य (जनों) के पाँच नमूने, इनमेंसे प्रत्येक एक महान् (आर्य) जाति है जो समग्र मानव प्रकृतिके अपने-अपने प्रदेश या उसकी एक अवस्थाको अधिकृत किये है । परन्तु इनके अतिरिक्त एक पूर्ण एवं निरपेक्ष आर्य भी होता है जो इन अवस्थाओंको

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जीतना चाहता है और इन्हें लाँघकर इन सबके परात्पर सामञ्जस्य तक पहुँचना चाहता है ।

 

यह अतिमानसिक सत्य ही है इस महान् आंतरिक रूपांतरका करण । यह मनोमय सत्ताके स्थानपर प्रकाशमय अन्तरर्दुर्ष्टि और देवोंके चक्षुको ले आता है, मर्त्य जीवनके स्थानपर अनन्त सत्ताके श्वास और शक्तिको, तमसाच्छन्न और मृत्यु-वशीकृत उपादानके स्थानपर मुक्त और अमर चेतन- सत्ताको स्थापित कर देता है । इसलिए मनुष्यकी प्रगतिका अर्थ होना चाहिये, प्रथम तो, उसका आत्म-विस्तार, एक ऐसी शक्तिशाली प्राणमय सत्तामें आत्म-विस्तार जो क्रिया और अनुभूतिके सब स्पन्दनोंको धारण कर सकनेमें समर्थ हो, साथ ही एक स्पष्ट मानसिक और चैत्य पवित्रताकी स्थितिमें आत्म-विस्तार, दूसरे, इस मानव प्रकाश और बलको अतिक्रान्त कर इसे अनन्त सत्य और अमर संकल्पमें रूपान्तरित कर देना ।

 

हमारा साधारण जीवन और चेतना अंधकारमय हैं या अधिक-से-अधिक वे तारोंसे जगमगाती रात्रि हैं । उस उच्चतर सत्यके सूर्यके उदयसे उषा आती है और उषाके साथ आता है फलप्रद यज्ञ । यज्ञ द्वारा स्वयं उषाको और खोये सूर्य को लौट-लौटकर आनेवाली रात्रिमेंसे बारंबार जीता जाता है एवं प्रकाशमय गोयूथोंको पणियोंकी अँधेरी गुफासे छुड़ा लिया जाता है । यज्ञ द्वारा द्युलोकके प्रचुर ऐश्वर्यकी वृष्टि हमारे लिये बरसाई जाती है और उच्चतर सत्ताकी सप्तविध धाराएँ अतिशय वेगसे हमारी पृथिवीपर उतर आती हैं, क्योंकि ईश्वरीय मनकी चमचमाती विद्युतोंके वज्राघातसे अंधकारजनक अजगर ( अहि) की, सर्व-आवेष्टक और सर्व-निरोधक वृत्रकी कुंडलियाँ छिन्न-भिन्न हो चुकती हैं । यज्ञमें सोमसुराका स्रवण किया जाता है और वह हमें अपनी अमरताप्रद आनन्दोल्लासकी धारापर सर्वोच्च द्युलोकोंतक उठा ले जाती है ।

 

हमारा यज्ञ है अपनी सब उपलब्धियों और कार्योंको उच्चतर सत्ताकी शक्तियोंके प्रति आहुति-रूपमें अर्पित कर देना । वैसे तो सारा जगत् ही मूक और असहाय यज्ञ है जिसमें आत्मा अदृश्य देवोंके प्रति स्वयं-समर्पित बलिके रूपमें बँधा हुआ है । मनुष्य के हृदय और मनमें मुक्तिदायक शब्दको ढूंढ़ना होगा, प्रकाशप्रद सूक्तको गढ़ना होगा और उसके जीवनको एक ऐसी सचेत और स्वेच्छाकृत आहुतिके रूपमें परिणत करना होगा जिसमें आत्मा यज्ञकी बलि न बना रहकर उसका स्वामी बन जाय । ठीक प्रकारके यज्ञ द्वारा और उस सर्व-सर्जक एवं सर्वाभिव्यंजक शब्द द्वारा जो उसके हृदयकी गहराइयोंसे देवोंके प्रति एक उदात्त सूक्तके रूपमें उठेगा, मनुष्य

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सभी वस्तुएँ प्राप्त कर सकता है । वह अपनी पूर्णताको जीतकर रहेगा ! प्रकृति एक इच्छुक और उत्कंठित वधूके रूपमें उसके पास आकर ही रहेगी । वह उसका द्रष्टा बनकर रहेगा और उसके सम्राट्के रूपमें उसपर शासन करेगा ।

 

प्रार्थना और ईश्वर-आकर्षणके सूक्त द्वारा, स्तुति और ईश्वर-सम्पोषणके सूक्त द्वारा, ईश्वर-प्राप्ति और आत्म-अभिव्यक्तिके सूक्त द्वारा मनुष्य अपने भीतर देवोंको बसा सकता है और अपनी सत्ताके इस नवद्वार गृहमें उनके देवत्वकी सजीव प्रतिमाका निर्माण कर सकता है, दिव्य जन्मोंमें विकसित हो सकता है, अपनी आत्माके रहनेके लिये अपने अन्दर विशाल और प्रकाशमय लोकोंकी रचना कर सकता है । सत्यके शव्दके द्वारा सर्वोत्पादक सूर्य सृष्टि करता है, उस लयके द्वारा ब्रह्मणस्पति लोकोंका आह्वान कर उन्हें बाहर निकाल लाता है और त्वष्टा देव उनका आकार घड़ता है । मानव विचारक, मर्त्य प्राणी अपने बोधिमय हृदयमें सर्वशक्तिशाली शब्दको ढूँढ़कर, अपने मनमें उसे आकार देकर, अपने भीतर अपने अभिलषित सभी रूपों और सभी भूमिकाओं और अवस्थाओंको निर्मित कर सकता है तथा उन्हे उपलब्ध कर अपने लिये सत्य, प्रकाश, बल और आनन्दोपभोगकी समस्त सम्पदाको जीत सकता है । वह अपनी समग्र सत्ताका गठन करता है और बुराईकी सेनाओंका विनाश करनेके लिये अपने देवोंकी सहायता करता है, उसके आध्यात्मिक शत्रुओंके उस सैन्यगणका वध कर दिया जाता है जिसने उसकी प्रकृतिकों विभक्त, विदारित तथा रांतप्त कर रखा है ।

 

वैदिक यज्ञ और देवताओंके रूपक

 

यज्ञका निरूपण कभी-कभी यात्रा या समुद्रयात्राके रूपक द्वारा किया जाता है; क्योंकि यह ( यज्ञ) चलता है, यह आरोहण करता है; इसका लक्ष्य है विशालता, वास्तविक अस्तित्व, प्रकाश, आनंद । इससे चाहा गया है कि यह अपने उस लक्ष्यपर पहुँचनेके लिये एक उत्तम, सीधा और सुखमय मार्ग खोज निकाले और उसीपर चले ,--यह है सत्यका कठिन किंतु आनदपूर्ण पथ । इसे दिव्य संकल्पके जाज्वल्यमान बल द्वारा परिचालित होकर मानो पर्वतकी एक अधित्यकासे दूसरी अधित्यकापर चढ़ना होता है, इसे मानो पोतके द्वारा सत्ताके समुद्रको पार करना होता है, इसकी नदियोंको लांघना, इसके गहरे गड्ढों और वेगवती धाराओंका अतिक्रमण करना होता है; इसका उद्देश्य होता है असीमता और प्रकाशके सुदूरवर्ती समुद्रपर पहुँचना ।

 

यह कोई सरल या निष्कंटक प्रयाण नहीं है । यह लंबे समयोंतक एक भयंकर और क्रूर युद्ध होता है । निरंतर ही आर्यपुरुषको श्रम करना

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होता है, लड़ना होता है और विजय प्राप्त करनी होती है; उसे अथक परिश्रमी, अश्रांत पथिक और कठोर योद्धा होना होता है, उसे एकके बाद एक नगरीका भेदन करना, उसे आक्रांत करना और लूटना, एकके बाद एक राज्यको जीतना, एकके बाद एक शत्रुको पछाड़ना और उसे निर्दयता- पूर्वक पददलित करना होता है । उसकी समग्र प्रगति होती है एक संग्राम- देवों और दानवोंका, देवों और दैत्योंका, इन्द्र और वृत्रका, आर्य और दस्युका संग्राम । उसे विरोधी आर्योका भी खुले क्षेत्रमें सामना करना होता है, क्योंकि पहलेके मित्र और सहायक भी शत्रु बन जाते हैं, आर्य राज्योंके राजा जिन्हें उसे जीतना और अतिलंघन करना होता है, दस्युओंसे जा मिलते हैं और उसके मुक्त और पूर्ण अभिगमनको रोकनेके लिये चरम युद्धमें उसके विरोधमें जा खड़े होते हैं ।

 

परंतु दस्यु हैं स्वाभाविक शत्रु । इन विभाजकों, लुटेरों, हानिकारक शक्तियोंको, इन दानवों, विभाजनकी माताके पुत्रोंको ऋषियोंने कई सामान्य संज्ञाओंसे पुकारा हैं । ये हैं 'राक्षस'; ये हैं खानेवाले और हड़प जानेवाले, भेड़िये (वृक) और चीर डालनेवाले; ये हैं क्षति पहुँचानेवाले, घृणा करनेवाले; ये हैं द्वैध करनेवाले; ये है सीमित करनेवाले या निंदा करनेवाले । पर ऋषि हमें कई विशेष नाम भी बताते हैं । उनमे 'वृत्र', वह सर्प, प्रधान शत्रु है; क्योंकि वह अपनी अंधकारकी कुंडलियोंसे दिव्य सत्ता और दिव्य क्रियाकी सब संभावनाको ही रोक देता है । और जब प्रकाश द्वारा वृत्रका वध कर दिया जाता है तो उसमेंसे उससे भी अघिक भयंकर शत्रु उठ खड़े होते हैं । उनमेंसे एक है शुष्ण जो हमें अपने अपवित्र और असिद्धिकर बलसे पीड़ित करता है, दूसरा है नमुचि जो मनुष्यसे उसकी दुर्बलताओं द्वारा लड़ता है, और कुछ अन्य भी है जिनमेंसे प्रत्येक निजी विशेष बुराईके साथ आक्रमण करता है । और फिर है वल और पणि--इन्द्रिय-जीवनमें लेन-देन करनेवाले लोभी बनिये, उच्चतर प्रकाश और उसको ज्योतियोंको चुराने और छुपानेवाले । ये प्रकाश और उसकी ज्योतियोंको केवल अन्धकारसे आवृत कर सकते हैं और उनका दुरुपयोग ही कर सकते हैं । ये हैं अशुचिगण जो देवोंकी संपदाके ईर्ष्यालु होते हैं किन्तु यज्ञ करके कभी उन्हें हवि प्रदान नहीं करना चाहते । हमारी अज्ञानता, बुराई, दुर्बलता तथा अनेकानेक सीमाओंका साकार रूप रखनेवाले ये तथा अन्य व्यक्तित्व--जो इन अज्ञानता आदि पर व्यक्तित्वारोप या इनके मानवीकरणसे कहीं अधिक कुछ हैं--मनुष्यके 'साथ निरन्तर युद्ध करते रहते हैं । ये उसे समीपतासे घेरे रहते हैं या उसपर दूरसे अपने

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तीर मारते रहते हैं अथवा यहाँ तक कि उसके द्वारोंवाले घरमें देवोंके स्थानमें रहते हैं और अपने आकाररहित और हकलाते हुए मुखोंद्वारा तथा अपने बलके अपर्याप्त निःश्वास द्वारा उसके आत्म-अभिव्यंजनको दूषित करते है । इन्हें निकाल बाहर करना होगा, वशमें कर मार डालना होगा, महान् और साहाय्यकारक देवताओंकी सहायतासे इन्हें इनके ही निम्न अंधकारमें धकेल देना होगा ।

 

वैदिक देवता विश्वव्यापी देवताके नाम, शक्तियाँ और व्यक्तित्व हैं और वे दिव्य सत्ताके किसी विशेष सारभूत बलका प्रतिनिधित्व करते हैं । ये देव विश्वको अभिव्यक्त करते हैं और इसमें अभिव्यक्त हुए हैं । प्रकाशकी संतान और असीमताके पुत्र ये मनुष्यकी आत्माके अंदर अपने बंधुत्व और सख्यको पहचानते हैं और उसे सहायता पहुँचाना और उसके अंदर अपने-आपको बढ़ाकर उसे बढ़ाना चाहते हैं जिससे कि उसके जगत्को वे अपने प्रकाश, बल और सौंदर्य द्वारा अभिव्याप्त कर सकें । देवता मनुष्यको पुकारते हैं एक दिव्य सख्य और साथीपनके लिये, वे उसे अपने प्रकाशमय भ्रातृत्वके लिये आकृष्ट करते और ऊपर उठाते हैं, वे अंधकार और विभाजनके पुत्रोंके विरोधमें उसकी सहायता आमंत्रित करते और अपनी सहायता उसे प्रदान करते हैं । बदलेमें मनुष्य देवताओंको अपने यज्ञमें आहूत करता है, उन्हें अपनी तीव्रताओं और अपने बलोंकी, अपनी निर्मलताओं और अपनी मधुरताओंकी हवि भेंट करता है--प्रकाशमय गौके दूध और घीकी, आनंदके पौधेके निचोड़े हुए रसोंकी, यज्ञके अश्वकी, अपूप और सुराकी, दिव्य-मनके चमकीले हरिओं (घोड़ों) के लिये अन्नकी भेंट चढ़ाता है । वह उन्हें (देवोंको) अपनी सत्तामें ग्रहण करता है और उनकी देनोंको अपने जीवनमें; वह उन्हें मंत्रों और सोमरसोंसे बढ़ाता है और उनके महान् तथा प्रकाशमय देवत्वोंको पूर्णतया रचता है; वेद कहता है कि वह उन्हें ऐसे रचता है 'जैसे लोहार लोहेको घड़ता हैं । '

 

इस सब वैदिक रूपकको समझना हमारे लिये सुगम है, यदि एक बार हमें इसकी कुंजी मिल जाय, परंतु इसे केवल रूपकमात्र मान लेना गलती होगी । देवता निर्विशेष भावोके या प्रकृतिके मनोवैज्ञानिक और भौतिक व्यापारोंके केवल कविकृत मानवीकरण नहीं है । वैदिक ऋषियोंके लिये वे सजीव सद्वस्तुएँ है । मानव आत्माके उलट-फेर, अवस्थान्तर एक वैश्व संघर्षके निदर्शक होते हैं, न केवल सिद्धान्तों और प्रवृत्तियोंके संघर्षके कितु उनको आश्रय देनेवाली तथा उन्हें मूर्त्त करनेवाली वैश्व शक्तियोंके संघर्षके भी । वे वैश्व शक्तियाँ ही है देव और दैत्य । वैश्व रंगमंचपर और वैयक्तिक

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आत्मामें दोनों जगह एक ही वास्तविक नाटक उन्हीं पात्रों द्वारा खेला जा रहा है ।

       

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.वे देव कौनसे हैं जिनका यजन करना है ? वे कौन हैं जिनका यज्ञमें आवाहन करना है जिससे कि यह वर्धनशील देवत्व मानवसत्ताके अंदर अभिव्यक्त हो सके और रक्षित रह सकें ?

 

सबसे पहला है अग्नि, क्योंकि उसके बिना यज्ञिय ज्वाला आत्माकी वेदीपर प्रदीप्त ही नहीं हो सकती । अग्निकी वह ज्वाला है संकल्पकी सप्तजिह्व शक्ति; परमेश्वरकी एक ज्ञानप्रेरित शक्ति । यह सचेतन (जागुत) तथा बलशाली संकल्प हमारी मर्त्यसत्ताके अंदर अमर्त्य अतिथि है, एक पवित्र पुरोहित और दिव्य कार्यकर्त्ता है, पृथिवी और द्यौके बीच मध्यस्थता करनेवाला है । जो कुछ हम हवि प्रदान करते हैं उसे यह उच्चतर शक्तियोंतक ले जाता है और बदलेमें उनकी शक्ति और प्रकाश और आनंद हमारी मानवताके अंदर ले आता है ।

 

दूसरा देव है शक्तिशाली इन्द्र । वह शुद्ध सत्की शक्ति है जो भागवत मनके रूपमें स्वतः-अभिव्यक्त है । जैसे अग्नि एक ध्रुव है, ज्ञानसे आविष्ट शक्तिका ध्रुव, जो अपनी धाराको ऊपर पृथ्वीसे द्यौकी तरफ भेजता है, वैसे ही इन्द्र दूसरा ध्रुव है, शक्तिसे आविष्ट प्रकाशका ध्रुव, जो द्यौसे पृथ्वीपर उतरता है । वह हमारे इस जगत्में एक पराक्रमी वीर योद्धाके रूपमें अपने चमकीले घोड़ोंके साथ उतरता है, और अपनी विद्युतों एव वज्रोंके द्वारा अंधकार तथा विभाजनका विनाश करता है, जीवनदायक दिव्य जलोंकी वर्षा करता है, शुनी (अंतर्ज्ञान )की खोजके द्वारा खोयी या छिपी हुई ज्योतियोंको ढूँढ़ निकालता है, हमारी मनोमय-सत्ताके द्युलोकमें सत्यके सूर्यको ऊँचा चढ़ा देता है ।

 

सूर्य-देवता है उस. परम सत्यका स्वामी--सत्ताके सत्य, ज्ञानके सत्य, क्रिया और प्रक्रियाके, गति और व्यापारके सत्यका स्वामी । इसलिये सूर्य है सब वस्तुओंका स्रष्टा, बल्कि अभिव्यजक (क्योंकि सर्जनका अर्थ है बाहर ले आना, सत्य और संकल्प द्वारा प्रकट कर देना), और यह हमारी आत्माओंका पिता, पोषक तथा प्रकाशप्रदाता है । जिन ज्योतियोंको हम चाहते है वे इसी सूर्यके गोयूथ हैं, गौएँ हैं । यह सूर्य हमारे पास दिव्य उषाओंके पथसे आता है और हमारे अंदर रात्रिमें छिपे पड़े जगतोंको एकके बाद एक खोलता तथा प्रकाशित करता जाता है जबतक कि यह हमारे लिये सर्वोच्च, परम आनंदको नहीं खोल देता ।

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इस आनंदकी प्रतिनिधिभूत देवता है सोम । उसके आनंदका रस (सुरा) छिपा हुआ है पृथिवीके प्ररोहोंमें, पौधोंमें और सत्ताके जलोंमें; यहाँ हमारी भौतिक सत्तातकमें उसके अमरतादायक रस हैं और उन्हैं निकालना है, उनका सवन करना हैं और उन्हें सब देवताओंको हविरूपमे प्रदान करना है, क्योंकि सोमरसके बलसे ही ये देव बढ़ेंगे और विजयशाली होंगे ।

 

इन प्राथमिक देवोंमेंसे प्रत्येकके साथ अन्य देव जुड़े हैं जो उसके अपने व्यापारसे उद्गत व्यापारोंको पूरा करते हैं । क्योंकि यदि सूर्यके सत्यको हमारी मर्त्य प्रकृतिमें दृढ़तया स्थापित होना है तो कुछ पूर्ववर्ती अवस्थाएँ है जिनका स्थापित हो जाना अनिवार्य है; एक बृहत् पवित्रता और स्वच्छ विशालता जो समस्त पाप और कुटिल मिथ्यात्वकी विनाशक है--यह है वरुण देव, प्रेम और समग्रबोधकी एक प्रकाशमय शक्ति जो हमारे विचारों, कर्मो और आवेगोंको आगे ले जाती और उन्हें सामंजस्ययुक्त कर देती है; --यह है मित्र देव; सुस्पष्ट-विवेचनशील अभीप्सा तथा प्रयत्नकी एक अमर शक्ति, पराक्रम--यह है अर्यमा; सब वस्तुओंका समुचित उपभोग करनेकी एक सुखमय सहज अवस्था जो पाप, भ्रांति और पीड़ाके दुःस्वप्नका निवारण करती है--यह है भग । ये चारों सूर्यके सत्यकी शक्तियाँ हैं ।

 

सोमका समग्र आनंद हमारी प्रकृतिमें पूर्णतया स्थापित हो जाय इसके लिये मन, प्राण और शरीरकी एक सुखमय, प्रकाशमान और अविकलांग अवस्थाका होना आवश्यक है । यह अवस्था हमें प्रदान की जाती है युगल अश्विनोंके द्वारा । प्रकाशकी दुहितासे विवाहित, मधुको पीनेवाले, पूर्ण संतुष्टियोंको लानेवाले, व्याधि और अंगभंगके भैषज्यकर्त्ता ये अश्विनौ हमारे ज्ञानके भागों और हमारे कर्मके भागोंको अधिष्ठित, करते हैं और हमारी मानसिक, प्राणिक तथा भौतिक सत्ताको एक सुगम और विजयशाली आरो-हणके लिये तैयार कर देते है ।

 

मानसिक रूपोंके निर्माताके तौरपर इन्द्रके, दिव्य मनके सहायक होते है उसके शिल्पी ऋभुगण । ये ऋभु ह मानवीय शक्तियॉ जिन्होंने यज्ञके सपादनसे और सूर्यके ऊँचे निवासस्थानतक अपने उज्ज्वल आरोहण द्वारा अमरत्व प्राप्त किया है और जो अपनी इस सिद्धिकी पुनरावृत्ति किये जानेंमें मनुष्यजातिकी सहायता करते है । ये मनके द्वारा इन्द्रके घोड़ोंका निर्माण करते हैं, अश्विनौके रथका, देवताओंके शस्त्रोंका तथा यात्रा एवं युद्धके समस्त साधनोंका निर्माण करते हैं । परंतु सत्यके प्रकाशके प्रदाता तथा वत्रहंताके रूपमें इन्द्रके सहायक हैं मरुत् । ये मरुत् संकल्पकी तथा वातिक

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या प्राणिक बलकी शक्तियाँ हैं जिन्होंने विचारके प्रकाश और आत्मप्रकटनकी गिराको प्राप्त किया है । ये समस्त विचार और वाणीके पीछे उसके प्रेरकके रूपमे रहते हैं और परम चेतनाके प्रकाश, सत्य और आनंदको पहुँचनेके लिये युद्ध करते हैं ।

 

और फिर स्त्रीलिंगी शक्तियाँ भी हैं; क्योंकि देव पुरुष और स्त्री दोनों है और देवता भी या तो सक्रिय करनेवाली आत्माएँ है या निष्प्रतिरोध रूपसे कार्य संपन्न करनेवाली और यथाक्रम विन्यास करनेवाली शक्तियाँ हैं । उनमें सबसे पहले आती है अदिति, देवोंकी असीम माता, और फिर उसके अतिरिक्त सत्य चेतनाकी पाँच शक्तियां भी हैं--मही अथवा भारती है वह विशाल वाणी जो सब वस्तुओंको दिव्य स्रोतसे हमारे लिये ले आती है;  इड़ा है सत्यकी वह दृढ़ आदिम वाणी जो हमें इसका सक्रिय दर्शन प्रदान करती है; सरस्वती है इस (सत्य )की बहती हुई धारा और इसकी अंतःप्रेरणाकी वाणी; सरमा, अंतर्ज्ञानकी देवी है वह द्युलोककी शुनी जो अवचेतनाकी गुफामें उतर आती है और वहाँ छिपी हुई ज्योतियोंकों ढुँढ़ लेती है; फिर है दक्षिणा जिसका व्यापार होता है ठीक-ठीक विवेचन करना, क्रिया और हविका विनियोग करना तथा यज्ञमे प्रत्येक देवताको उसका भाग वितीर्ण करना । इसी प्रकार प्रत्येक देवकी भी अपनी-अपनी एक स्त्रीलिंगी शक्ति है ।

 

इस सब क्रिया और संघर्ष और आरोहणके आधार है हमारा पिता द्यौ और हमारी माता पृथिवी, देवोंके पितरौ, जो क्रमश:  हमारी शुद्ध मानसिक एवं आंतरात्मिक चेतनाको तथा भौतिक चेतनाका धारण करते हैं । इनका विस्तृत और मुक्त अवकाश हमारी सिद्धिके लिये एक आवश्यक अवस्था है । वायु, प्राणका अधिपति, इन दोनोंको अंतरिक्ष, प्राणशक्तिके लोकके द्वारा जोड़ता है । और फिर अन्य देवता भी है--पर्जन्य, द्युलोककी वर्षा देनेवाला, दधिक्रावा, दिव्य युद्धाश्व, अग्निकी एक शक्ति;  आधारका रहस्यमय सर्प (अहिर्बुध्न्य), त्रित आप्त्य जो भुवनके तीसरे लोकमें हमारी त्रिविध सत्ताको निष्पन्न करता, सिद्ध करता है; इनके अतिरिक्त और भी हैं ।

 

इन सभी देवत्वोंका विकास हमारी पूर्णताके लिये आवश्यक है । और वह पूर्णता हमें प्राप्त करनी चाहिये अपने सभी स्तरोंपर--पृथ्वीकी विस्ती- र्णतामें, हमारी भौतिक सत्ता और चेतनामें; प्राणिक वेग और क्रिया और उपभोगके तथा वातिक स्पंदनके पूर्ण बलमें, जो घोड़े (अश्व )के रूपकसे निरूपित किया गया है, जिस घोड़ेको हमें अपने प्रयत्नोंको आश्रय. देनेके लिये अवश्य सामने लाना चाहिये; भावमय हृदयके पूर्ण आनदमें और

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मनकी एक चमकीली उष्णता और निर्मलतामें, हमारी समस्त बौद्धिक और अतर्मानसिक सत्तामें; अतिमानस प्रकाशके आगमनमें, उषा तथा सूर्यके एवं गौओंकी ज्योतिर्मयी माताके आगमनमें, जो हमारी सत्ताका रूपांतर करनेके लिये आते हैं; क्योंकि इसी प्रकार हम सत्यको अधिकृत करते हैं, सत्यके द्वारा आनंदकी अद्भुत महान् लहरको, आनंदमें निरपेक्ष अस्तित्वकी असीम चेतनाको आयत्त करते हैं ।

 

तीन महान् देवता, जो पौराणिक त्रिमूर्त्तिके मूल हैं और परम देवकी तीन बृहत्तम शक्तियाँ हैं, इस क्रमोन्नति और ऊर्ध्वमुरव विकासको संभव बनाते हैं; ये ही ब्रह्मांडकी इन सब जटिलताओंको उसकी विशाल रूप-रेखाओंमे और मूलभूत शक्तियोंमें धारण करते हैं । उनमेंसे पहला ब्रह्मणस्पति है स्रष्टा, वह शब्दके द्वारा, अपने रवके द्वारा सर्जन करता है-- इसका अभिप्राय हुआ कि वह अभिव्यक्त करता है, समस्त सत्ताको और सब सचेतन ज्ञानको तथा जीवनकी गतिको और अंतिम परिणत रूपोंको निश्चेतनाके अंधकारमेंसे बाहर निकालकर प्रकट कर देता है । फिर है रुद्र, प्रचंड और दयालु, ऊर्जस्वी देव, जो जीवनके अपने-आपको सुस्थित करनेके लिये होनेवाले संघर्षका अधिष्ठाता है; वह है परमेश्वरकी शस्त्रसज्जित, मन्युयुक्त तथा कल्याणकारी शक्ति जो सृष्टिको जबर्दस्ती ऊपरकी ओर उठाती है, जो कोई विरोध करता है उस सबपर प्रहार करती है, जो कोई गलती करता है या प्रतिरोध करता है उस सबको चाबुक लगाती है, जो कोई क्षत हुआ है और दुःखी है और शिकायत करता है तथा शरण आता है उस सबकी मरहमपट्टी करती, उसे चंगा कर देती है । तीसरा है विशाल, व्यापक गतिवाला विष्णु जो अपने तीन पद-क्रमोंमें इन सब लोकोंको धारण करता है । यह विष्णु ही हमारी सीमित मर्त्यसत्ताके अंदर इन्द्रकी क्रिया होनेके लिये विस्तृत स्थान बनाता हैं; उसके द्वारा और उसके साथ ही हम उसके उच्चतम पदोंतक आरोहण कर पाते है जहाँ उस मित्र, प्रिय, परम सुखदाता देवको हम हमारी प्रतीक्षा करते हुए पाते हैं ।

 

हमारी यह पृथ्वी, जो सत्ताके अंधकारमय निश्चेतन समुद्रमेंसे निर्मित हुई है, अपनी उच्च रचनाओंको और अपने चढ़ते हुए शिखरोंको द्युलोककी ओर ऊपर उठाती है । मनके द्युलोककी अपनी ही निजी रचनाएँ हैं, पर्जन्य हैं जो अपने विद्युत्-प्रकाशोंको तथा अपने जीवनजलोंको प्रदान करते हैं; निर्मलताकी तथा मधुकी धाराएँ नीचेके अवचेतन समुद्रमेंसे उठकर ऊपर चढ़ती हैं और ऊपरके अतिचेतन समुद्रको पहुँचना चाहती हैं; और ऊपरसे वह समुद्र अपनी प्रकाशकी और सत्य और आनंदकी नदियोंको नीचेकी ओर,

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हमारी भौतिक सत्ताके अंदरतक भी, बहाता है । इस प्रकार भौतिक प्रकृतिके रूपकोंके द्वारा वैदिक कवि हमारे आध्यात्मिक आरोहणका गति-गान करते हैं ।

 

वह आरोहण प्राचीन पुरुषों, मानव-पूर्वपितरों, द्वारा पहले ही संपन्न किया जा चुका है और उन महान् पूर्वजोंकी आत्मा अब भी अपनी संतानोंकी सहायता करती है; क्योंकि नवीन उषाएँ पुरानियोंकी पुनरावृत्ति करनेवाली होती है तथा भविष्यकी उषाओंसे मिलनेके लिये प्रकाशमें आगे झुकती हैं : कण्व, कुत्स, अत्रि, कक्षीवान्, गोतम, शुन:शेप आदि ऋषि विशेष प्रकारकी आध्यात्मिक विजयें प्राप्त करके आदर्श स्थापित कर चुके हैं जिनको वे विजयें मानवजातिकी अनुभूतिमें सतत पुनरावृत्त होनेकी प्रवृत्ति रखती हैं । सप्त ऋषि, वे अगिरस्, मंत्रगान करने, गुफाको तोड़ने, खोयी हुई गौओंको खोजने, छिपे हुए सूर्यको पुनः प्राप्त करनेंको उद्यत अब भी और सदैव प्रतीक्षा कर रहे हैं । इस प्रकार आत्मा सहायता करनेवालों और हानि पहुँचानेवालों, मित्रों और शत्रुओंसे भरा हुआ एक युद्धक्षेत्र है । यह सब सजीव है, भरपूर: है, वैयक्तिक है, सचेतन है, सक्रिय है । यज्ञ और शब्दके द्वारा हम अपने निजके लिये प्रकाशयुक्त द्रष्टाओंको, हमारे लिये लड़नेवाले वीरोंको, अपने कार्योंकी संतानोंको उत्पन्न करते हैं । ऋषिवुंद और देवता हमारे लिये चमकीली गौएँ खोज लाते है; ऋभुगण मनके द्वारा देवोंके रथ और उनके घोड़ों और उनके चमकते हुए शस्त्र निर्मित करते हैं । हमारा जीवन एक घोड़ा है जो हिनहिनाता हुआ और सरपट दौड़ता हुआ आगे-आगे और ऊपर-ऊपर हमें चढ़ाये लिये जा रहा है; इसकी शक्तियाँ द्रुतगामी अश्व हैं, मनकी मुक्त हुई शक्तियां विस्तृत पंखोंवाले पक्षी हैं; यह मानसिक सत्ता या यह आत्मा ऊपरकी ओर उड़नेवाला हंस या श्येन है जो सैकड़ों लोह-भित्तियोंको तोड़कर बाहर निकल आता है और आनंद-धामके ईर्षालु संरक्षकोंसे सोमकी सुराको छीन लाता है । प्रत्येक प्रकाशपूर्ण परमेश्वरोन्मुख विचार जो हृदयको गुप्त अगाध गहराइयोंसे निकलता है एक पुरोहित है और एक स्रष्टा है और वह प्रकाशमय सिद्धि तथा पराक्रमपूर्ण कृतार्थताके दिव्यगीतका गान करता है । हम सत्यके चमकीले सुवर्णको खोजते हैं; हम द्युलोककी निधिकी कामना करते हैं ।

 

मनुष्यका आत्मा सत्ताओंसे भरा एक संसार है, एक राज्य है जिनमें परम विजय पानेके लिये या उसमें बाधाएँ डालनेके लिये सेनाएँ संघर्ष करती हैं, एक घर है जिसमें देवता हमारे अतिथि हैं और जिसे असुर अधिकृत कर लेना चाहते हैं; इसकी शक्तियोंकी पूर्णता और इसकी सत्ताकी विशालता

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दिव्यसत्रके लिये (देवताओंके आकर बैठनेके लिये) यज्ञका आसन (बर्हि:) बिछाकर उसे व्यवस्थित और पवित्र कर देती हैं ।

 

ये हैं वेदके कुछ एक मुख्य रूपक और हैं उन पूर्व-पुरखोंकी शिक्षाकी बहुत संक्षिप्त और अपर्याप्त रूपरेखाएं । इस प्रकार समझा हुआ ऋग्वेद एक अस्पष्ट, गड़बड़से भरा और जंगली गीतावलि नहीं रहता, यह बन जाता है मानवताका एक ऊँची अभीप्सासे युक्त गीतपाठ, इसके सूक्त हैं आत्माकी अपना अमर आरोहण करते हुए गायी जाती वीरगाथाके आख्यान ।

 

कम-से-कम यह है; वेदमें और जो कुछ प्राचीन विज्ञान, लुप्त विद्या, पुरानी मनोभौतिक परंपरा आदि हों उन्हें खोजना अभी शेष है ।

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